Wednesday, February 1, 2017

यूपी चुनाव 2017-- जानें बुलंदशहर की सभी विधानसभा सीटों के बारे में

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रमुख जिला बुलंदशहर, दिल्ली से बेहद करीब है लेकिन विकास से कोसों दूर है। कहीं बिजली, कहीं पानी तो कहीं सड़कों की समस्या से जूझ रहे इस जिले ने देश-प्रदेश को कई बड़े नेता और यूपी को एक सीएम भी दिया है।

वर्तमान में बुलंदशहर जिले में 7 विधानसभा सीटें हैं। बुलंदशहर, अनूपशहर, सिकंदराबाद, डिबाई, खुर्जा, स्याना, और शिकारपुर। बुलंदशहर, अनूपशहर सीट पर बसपा का कब्जा है जबकि डिबाई और शिकारपुर सीटों पर सपा का। स्याना और खुर्जा सीट कांग्रेस के पास है, सिकंदराबाद सीट पर भाजपा काबिज है।
बुलंदशहर और अनूपशहर दोनों ही सीटों पर पिछले दो चुनावों में बसपा के प्रत्याशियों को ही जीत मिली है। दोनों ही विधायकों- हाजी अलीम (बुलंदशहर) और गजेंद्र सिंह (अनूपशहर) को करीब 10 साल से क्षेत्र का विकास करने का मौका मिला हुआ है। 2017 के चुनावों में देखना ये होगा कि जनता की कसौटी पर ये 10 साल कितने खरे उतरे।

डिबाई के विधायक गुड्डू पंडित उर्फ श्रीभगवान शर्मा पहले बसपा के टिकट पर चुनाव जीते थे। 2012 में फिर चुनावों का मौका आया तो वह सपा में शामिल हो गए और एक बार फिर विधायक चुने गए। अब 2016 में उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया है। पिछले दो बार से वह विधायक चुने जा रहे हैं और इस बार देखना ये होगा कि क्या जनता उनके काम पर मुहर लगाती है?

शिकारपुर के विधायक हैं मुकेश शर्मा। मुकेश, गुड्डू पंडित के भाई हैं और सपा के टिकट पर चुनाव जीते थे। स्याना सीट से विधायक हैं दिलनवाज खान। दिलनवाज, वेस्ट यूपी के दिग्गज कांग्रेसी नेता इम्तियाज के बेटे हैं। इम्तियाज की मृत्यु के बाद उन्हें टिकट मिला और वह विधायक चुने गए।

पॉटरी उद्योग के लिए प्रसिद्ध खुर्जा से विधायक हैं कांग्रेस के बंसी पहाडिया। पहले ये सीट बसपा के पास थी लेकिन 2012 में उसके हाथ से फिसल कर कांग्रेस की झोली में आ गिरी। अब 2017 में खुर्जा की जनता किस पार्टी और नेता को विधायक चुनेगी यह देखने वाली बात होगी।
सिकंदराबाद सीट से विधायक हैं भाजपा की बिमला सोलंकी। सिकंदराबाद सीट गुर्जर, सैनी और ठाकुर बाहिल्य सीट मानी जाती है और जातीय समीकरण यहां काफी हावी रहते हैं।
2017 के लिए बसपा ने तो अपने पत्ते खोल दिए थे। सपा ने भी एक सीट पर प्रत्याशी घोषित कर दिया है लेकिन बाकी पार्टियों ने अभी पत्ते नहीं खोले हैं।

यूपी चुनाव 2017, जानें हाथरस की सभी विधानसभा सीटों के बारे में



हाथरस विधान सभा
पुरुष मतदाता -2,10,825
महिला मतदाता- 1,70,819
कुल मतदाता- 3,81,649

जिले की हाथरस विधान सभा सुरक्षित है। वर्ष 2012 के चुनाव से पहले ये सुरक्षित थी। लगातार तीन बार रामवीर उपाध्याय यहां से विधायक रहे। इसी सीट से पहली बार जीतने के बाद वह ऊर्जा मंत्री, परिवहन मंत्री रहे। वर्ष 2012 में भी बसपा के गेंदालाल जीते। वर्तमान में बसपा ने गेंदालाल को फिर से प्रत्याशी बनाने से इंकार कर दिया है। बसपा के पुराने सिपाही जिला पंचायत सदस्य बृजमोहन राही को टिकट दिया गया है। भाजपा, कांगे्रस, रालोद से कोई प्रत्याशी घोषित नहीं है। सपा ने यहां से 2012 में प्रत्याशी रहे और तीसरे नंबर पर आए रामनारायन काके को पहले टिकट दी थी। मुलायम परिवार में घमासान के दौरान काके की टिकट काटकर 90 के दशक में लोक सभा चुनाव लड़ चुके मूलचन्द निम को सपा प्रत्याशी बनाया गया है।

हाथरस में 2017 चुनाव के लिए दावेदार-प्रत्याशी 
सपा के घोषित प्रत्याशी-- मूलचन्द निम

भाजपा से प्रमुख दावेदार-- पूर्व विधायक हरीशंकर माहौर, हाथरस पालिका नगर पालिका चेयरमैन प्रतिनिधि-- वासुदेव माहौर, रामवीर सिंह भइयाजी, विनोद चैधरी, संध्या आर्य, नंदिनी देवी।
कांग्रेस से प्रमुख दावेदार-- राजेश राज जीवन, बलवीर सिंह सूर्यवंशी, अनुज संत, योगेश कुमार ओके, राजपाल सिंह पुनियां।
रालोद से प्रमुख दावेदार--पूर्व विधायक रमेश करन, महेन्द्र सिंह धनगर

वर्ष 2012 हाथरस में चुनावी स्थिति
गेंदालाल चैधरी, बसपा, जीते। वोट मिले-59, 161
मुख्य प्रतिद्विंद्वी--राजेश दिवाकर, भाजपा। वोट मिले-50, 488
जीत का अंतर-- 8673 (4.23 प्रतिशत)

सादाबाद विधान सभा
पुरुष मतदाता--1,91,711
महिला मतदाता--1,46,335
कुल मतदाता--3,38,104

हाथरस जिले में हाथरस(सदर), सिकंदराराऊ और सादाबाद कुल तीन विधान सभा सीटें हैं। सिर्फ सादाबाद विधान सभा क्षेत्र से सपा के देवेन्द्र अग्रवाल वैश्य समाज से विधायक हैं। जाट बाहुल्य इस सीट पर सपा की लखनऊ में चल रही कलह का असर जरूर पड़ेगा। पूर्व ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय के बसपा से चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद से भी यह सीट सपा से फिसलती नजर आ रही है। संख्या के लिहाज से वैश्य समाज का वोट इस सीट पर जाट, ब्राह्मण, बघेल के बाद ही आता है।

सादाबाद में 2017 चुनाव के लिए दावेदार-प्रत्याशी
बसपा से प्रत्याशी--पूर्व मंत्री रामवीर उपाध्याय।
सपा से प्रमुख दावेदार--वर्तमान विधायक देवेन्द्र अग्रवाल।
भाजपा से प्रमुख दावेदार--चैधरी रामकुमार वर्मा, प्रीति चैधरी, सुभाष चैधरी, कप्तार्न ंसह ठेनुआं, मुन्ना प्रधान, सुनील गौतम, हरमेश गौतम,
कांग्रेस से प्रमुख दावेदार--शरद उपाध्याय नंदा, केशवदेव चतुर्वेदी, सत्यप्रकाश रंगीला, ब्रह्मदेव शर्मा।
रालोद से प्रमुख दावेदार--पूर्व विधायक डॉ. अनिल चैधरी, पूर्व विधायक प्रताप चैधरी, प्रदी कुमार गुड्डू चैधरी, गिरेन्द्र चैधरी,इशांत चैधरी।

वर्ष 2012 में सादाबाद में चुनावी स्थिति 
देवेन्द्र अग्रवाल, सपा,जीते। वोट मिले- 63, 741
मुख्य प्रतिद्विंद्वी- सत्येन्द्र शर्मा, बसपा। वोट मिले- 57554
जीत का अंतर रू 5,187(2.75 प्रतिशत)

सिकंदराराऊ विधान सभा
पुरुष मतदाता-- 1,89,363
महिला मतदाता--1,52,992
कुल मतदाता-3,42,366

ठाकुर बाहुल्य इस सीट पर वर्तमान में विधान सभा की लोक लेखा समिति के सभापति व पूर्व ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय विधायक हैं। वर्ष 2012 के चुनाव में वह पहली बार सिकंदराराऊ से लड़े थे। सपा प्रत्याशी यशपाल सिंह चैहान से उनकी कांटे की टक्कर हुई थी। महज एक हजार वोटों से रामवीर उपाध्याय चुनाव जीत पाए थे। यही कारण रहा कि उन्होंने इस सीट को छोड़ना बेहतर समझा। बसपा ने यहां पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष ओमवती बघेल के पति बनी सिंह बघेल को प्रत्याशी बनाया है। सपा ने वर्ष 2012 में यशपाल को लड़ाया था। इस बार भी उन पर दांव लगाया है। यशपाल पूर्व में भाजपा से विधायक रह चुके हैं। यहां से सपा के पूर्व एमएलसी डॉ. राकेश सिंह राना भी चुनाव लड़ने के लिए पिछले छह सात साल से प्रयास कर रहे हैं।

सिकंदराराऊ में 2017 चुनाव के लिए दावेदार-प्रत्याशी 
सपा से घोषित उम्मीदवार-पूर्व विधायक यशपाल सिंह चैहान।
बसपा से घोषित उम्मीदवार- पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष के पति बर्नी सह बघेल।
भाजपा से प्रमुख दावेदार-ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो.एसपी सिंह बघेल की पत्नी मधु बघेल, पूर्व जिलाध्यक्ष वीएस राना, कुसुमा देवी मदनावत, बृजेश चैहान, डॉ. राजीव सिंह, नरेन्द्र सिंह चैहान।
कांग्रेस से प्रमुख दावेदार-- ब्रह्मदेव शर्मा, जगतवर्ती पाठक, आरके राजू, सत्यप्रकाश रंगीला, वीना गुप्ता।
रालोद से प्रमुख दावेदार-- सिकंदराराऊ में वोट बैंक नहीं होने के चलते प्रत्याशी की चर्चा नहीं।

वर्ष 2012 में सिकंदराराऊ में चुनावी स्थिति
रामवीर उपाध्याय, बसपा, जीते। वोट मिले- 94, 471
मुख्य प्रतिद्विंद्वी-- यशपाल सिंह चैहान, सपा। वोट मिले- 93, 408
जीत का अंतर 1063 वोट,(0.52 प्रतिशत)

अब भी मुख्यधारा से दूर हैं यूपी के दलित


अजय शर्मा
छुआछूत का पारंपरिक दोष आज भी हमारे समाज में कायम है। अब भी इसकी जडे गहरी हैं। अलग-अलग श्रेणियों व पायदानों के बहाने समाज के लाखों लोगों को उन कामों में रमने को मजबूर किया गया, जिन्हें आमतौर पर कलंक माना जाता है। उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया। आजादी के बाद भारत छुआछूत को खत्म करने को आगे बढ़ा था। सांविधानिक प्रावधान के तहत 1950 में अनुसूचित जातियों की सूची तैयार की गई, ताकि उन लोगों तक विकास व सरकारी नीतियों की रोशनी पहुंचाई जा सके। सुधारवादी काम किए गए, केंद्र व राज्य विधानमंडलों, सिविल सेवा और शैक्षणिक संस्थानों में उन्हें आरक्षण दिया गया।


मगर, सच यही है कि दलित आज भी दूसरे तमाम समुदायों की तुलना में ज्यादा गरीब हैं। आज भी 36 फीसदी ग्रामीण दलित गरीबी रेखा से नीचे हैं। असंगठित श्रम में भी उनकी भागीदारी काफी ज्यादा है। 41 फीसदी दलित पुरुष और करीब 20 फीसदी दलित महिलाएं असंगठित कामगार हैं, जबकि गैर-अनुसूचित जाति, जनजाति पुरुषों में यह आंकड़ा 19 फीसदी व महिलाओं में महज आठ फीसदी है। बमुश्किल 13 फीसदी दलित पुरुष ही ऐसे रोजगार में हैं, जहां से उन्हें नियमित तनख्वाह मिलती है।

ऐसे में, हमारी सरकार को दलित सशक्तीकरण को बढ़ावा देना चाहिए, और इसके लिए सामाजिक व्यवहार और संस्थाओं को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। जरूरत शिक्षा पर भी ध्यान देने की है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के अनुसार, दलित बच्चों में ड्रॉप-आउट (पढ़ाई बीच में छोड़ देना) काफी ज्यादा है। आंकडे बताते हैं कि 74 फीसदी दलित लड़के और 71 फीसदी दलित लड़कियां प्राथमिक व मध्य विद्यालयों की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। साल 1931 में प्राथमिक स्कूलों में दलित बच्चों के दाखिले की दर सिर्फ चार फीसदी थी। दलित बच्चों की प्रतिभा को आज भी हतोत्साहित किया जा रहा है।
मध्य उत्तर प्रदेश के एक सुदूर गांव में हुआ एक दिलचस्प प्रयोग बताता है कि जिन दलित छात्रों ने पहेलियों को सुलझाने में पहले बेहतर प्रदर्शन किया था, वे तब बुरी तरह विफल रहे, जब उनकी जाति का पहले खुलासा कर दिया गया।
गरीबों और दलितों के प्रति भेदभाव दूर हो, इसके लिए वंचित घरों के बच्चों को बेशक मुफ्त में किताबें या विश्वविद्यालयों में मुफ्त होस्टल की सुविधा दी जा रही है, मगर इन प्रयासों से गरीबी और भेदभाव के खत्म होने में लंबा वक्त लग सकता है। जरूरत है ऐसे छात्रों को बुनियादी सुविधाएं, मसलन बिस्तर, टेबल-कुरसी आदि दिए जाएं। इससे शिक्षा अधिक समावेशी होगी। इसके अलावा, स्कूलों में बच्चों को कीडे मारने की दवा मुफ्त खिलानी चाहिए, ताकि उनकी सेहत दुरुस्त रहे। इससे कक्षा से उनके अनुपस्थित रहने की दर कम होगी और दलित बच्चों के नामांकन की दर बढेगी।

दलित उद्यमिता भी एक बड़ा मुद्दा है। आज भी दलित उद्योगपति काफी कम हैं, क्योंकि ज्यादातर दलित पारंपरिक पेशों में ही लगे हुए हैं। वैसे, इन उद्यमियों को भी भेदभाव रहित सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल नहीं है। देश का मानव विकास सर्वे कहता है कि महज 12 फीसदी दलित परिवारों की पहुंच मुख्यधारा से जुड़े दो-तीन उद्यमों तक है, जबकि उच्च वर्गों में यह आंकड़ा 26 फीसदी है। भेदभाव, भूमिहीन होने का इतिहास, सामाजिक दबाव और नगण्य भागीदारी जैसी चीजें दलित उद्यमिता की राह की बाधाएं हैं।

इस स्थिति में गांव और राज्य के स्तर पर सुधार की दरकार है। हमें महाराष्ट्र से सीखना चाहिए। वहां अनुसूचित जाति-जनजाति के कारोबारियों के लिए महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम के अधीन क्षेत्रों में 10 फीसदी जमीन आरक्षित कर दी गई है। यानी पूंजी की समस्या तभी दूर हो सकती है, जब दलित उद्यमिता को ध्यान में रखते हुए अधिक से अधिक ‘सोशल इंपैक्ट फंड’ के रास्ते खोले जाएं। हमें उद्यमिता केंद्रों के विस्तार के बारे में भी सोचना चाहिए, जिसमें पूंजी को बढ़ावा देने और इंफ्रास्ट्रक्चर पर खासा जोर हो। एक समाधान पारंपरिक शिल्प उद्योग से जुड़ी सहकारी समितियों और संस्थाओं का विकास भी हो सकता है। उर्मूल मरुस्थली बुनकर विकास समिति इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। इससे मेघवाल समुदाय के 120 दलित बुनकर परिवार जुड़े हैं। आज इन दलितों का न सिर्फ रहन-सहन बेहतर है, बल्कि यहां से अब पलायन भी रुक चुकी है। इतना ही नहीं, स्थानीय रोजगार के तमाम अवसर मानो पुनर्जीवित हो गए हैं।

दलितों को आर्थिक मदद की दरकार है। सच यही है कि कारोबारी क्षेत्र में दलितों की उपस्थिति बढ़ नहीं रही। साल 1990 में इस क्षेत्र में दलितों की उपस्थिति 9.9 फीसदी थी, जो साल 2005 में कम होते हुए 9.8 फीसदी हो गई। अनुसूचित जातिध् जनजाति उद्यमियों को प्रोत्साहित करने का एक तरीका यह है कि हम इस तबके के संघर्ष कर रहे उद्यमियों की आर्थिक मदद करें और लघु व मध्यम उद्योगों को मजबूत करके उनके जरिये दलितों की उद्यमिता को निखारें। इस लिहाज से स्टैंड अप इंडिया अभियान में छोटे व मध्यम आकार के उद्योगों पर खास तवज्जो देना दलितों के लिए फायदेमंद होगा। वैसे यहां तेलंगाना से सीखा जा सकता है। तेलंगाना ने जिला औद्योगिक केंद्रों के जरिये दलित महिला उद्यमियों पर खासा ध्यान देना शुरू किया है। कर्नाटक सरकार ने भी दलित दुग्घ उत्पादकों के लिए यह नीति बनाई है कि उन्हें महज 25,000 में एक जोड़ी गाय दी जाए, यानी 75,000 रुपये की सब्सिडी। यह एक अच्छी शुरुआत है।

कृषि-क्षेत्र में भी दलितों की सुविधाओं का ख्याल रखा जाना चाहिए। भूमि का एक समान व पारदर्शी वितरण असामान्य सामाजिक ढांचे को दुरुस्त करता है। भूमि सुधार से मिला-जुला नतीजा निकला है। स्थिति यह है कि आज भी जहां ‘कागजों’ पर जमीन का वितरण है, वहां दलितों को उनका हक नहीं मिल सका है। ग्रामसभा स्तर पर सामाजिक ऑडिट के जरिये ही इसे ठीक किया जा सकता है। वैसे, इसमें राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की निगरानी में गठित विशेषज्ञ कमेटी की भी दरकार होगी, जो इस काम पर निगाह रखे। हमें न सिर्फ भूमि सुधार की जरूरत को समझना होगा, बल्कि कृषि में दलितों को बराबर का न्याय भी देना होगा।

आंध्र प्रदेश की राज्य सरकार 1969 से एक योजना चला रही है, जिसके तहत सरकारी बंजर जमीन का बंटवारा भूमिहीनों में, खासतौर पर दलितों में किया जाता है। भूदान कार्यक्रम के तहत 1,13,972 एकड़ से अधिक जमीन 43,000 जरूरतमंदों को बांटे गए थे। केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जिन-जिन दलितों को जमीन मिली है, उन्हें सामूहिक सिंचाई की सुविधा भी मिले। साथ ही, बेहतर बीज, भंडारण की सुविधा भी उन्हें मिलनी चाहिए। भूदान का अर्थ सिर्फ भूमि का दान नहीं होना चाहिए। आज हमारा समाज ऊंची-ऊंची उड़ानें भर रहा है। महज एक पीढ़ी के भीतर वह सामंतवाद से उत्तर-आधुनिकतावाद की ओर बढ़ता हुआ दिख रहा है। ऐसे में, यह नई और आधुनिक पीढ़ी की जिम्मेदारी है कि वह समाज में समानता लाए। दलितों की आजीविका से जुड़े इन तमाम मुद्दों पर आवाज बुलंद करने की दरकार है।



जानिए क्या है समाजवादी पार्टी
समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश की प्रमुख पार्टी है। वर्तमान में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा की यहां सरकार है। सपा की स्थापना मुलायम सिंह यादव ने

4अक्टूबर 1992 को की। मुलायम उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और देश के पूर्व रक्षा मंत्री रह चुके हैं। समाजवादी पार्टी वैसे तो यूपी में काफी सफल पार्टी है लेकिन देश के अन्य राज्यों में भी चुनाव में कूद चुकी है। 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में सपा को 224 सीटें मिली थीं।
मुलायम सिंह के नेतृत्व में सपा ने 1993और 2003 में यूपी में सरकार बनाई थी।15वीं लोकसभा चुनाव के दौरान भी सपा देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर कर सामने आई थी। इसके बाद2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा ने चुनाव लड़ा और सरकार बनाई।
चुनाव चिह्नः साइकिल

पार्टी के प्रमुख चेहरेः
संस्थापकः मुलायम सिंह यादव
मुख्यमंत्रीः अखिलेश यादव
आजम खां (रामपुर विधायक)
रामगोपाल यादव (राज्यसभा सांसद)
शिवपाल सिंह यादव (उप्र सपा अध्यक्ष)
धर्मेंद्र यादव (बदायू से सांसद)

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चुनावी मुददा 

विकास के साथ नोटबंदी भी यूपी में होगा चुनावी मुद्दा- सीएम अखिलेश
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा है कि विकास के साथ-साथ नोटबन्दी भी यूपी विधानसभा चुनाव में मुद्दा होगा। पहले जो लोग इसे सही बता रहे थे उन्हें भी इसके नुकसान का एहसास होने लगा है और वे कहने लगे हैं कि इससे बड़ा नुकसान हो रहा है।
सीएम शनिवार को अपने सरकारी आवास पर शहीदों के साथ-साथ अपने पैसे के लिए एटीएम की लाइन में दम तोड़ने वाले लोगों के परिजनों को सहायता राशि के चेक बांट रहे थे।

कैशलेस का सपना अच्छे दिनों जैसा
 अखिलेश ने कहा कि सारे अर्थशास्त्री भी इसे देश की अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक बता रहे हैं। हर कोई चाहता है कि काला धन और भ्रष्टाचार खत्म हो लेकिन किसी भी नई चीज को लागू करने में समय लगता है। उन्होंने कहा कि यह कैशलेस वाला सपना भी अच्छे दिन वाले सपने जैसा ही है। यह अब सभी जानने लगे हैं।



पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को भी जानिए

 सुप्रीमो मायावती 4 बार यूपी की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। वे पहली दलित महिला हैं जो भारत के किसी राज्य की मुख्यमंत्री बनीं। उनके समर्थक उन्हें बहनजी कहते हैं तो उनके विरोधी भी उनकी तारीफें करते हैं। यूपी की राजनीति के मैदान में उनकी पहचान माहिर खिलाड़ी की है।

प्रभुदयाल और रामरती के घर 15 जनवरी 1956 को मायावती का जन्म हुआ था। दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए और एलएलबी करने के बाद वह सिविल सर्विसेस की तैयारी कर रही थीं और अध्यापन का काम भी कर रही थीं। इसी दौरान माया का परिचय काँशी राम से हुआ जिन्होंने उन्हें राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया।

काँशी राम और मायावती ने बसपा को शुरु किया और आगे बढ़ाया। कई लोगों ने माया का विरोध भी किया लेकिन वे आगे बढ़ती रहीं। बसपा की तरक्की होती रही औप माया अपने बयानों और तेवरों के कारण सुर्खियों में आती रहीं। वे आज देश की सबसे काबिल और कद्दावर नेताओं में मानी जाती हैं।
उन पर कई आरोप भी लगते रहे लेकिन माया ने जैसे झुकना सीखा ही नहीं। वे लगातार ताकतवर होती रही हैं। बसपा आज राष्ट्रीय पार्टी बन गई है और मायावती दलितों की बड़ी नेता।

यूपी की कमान सबसे ज्यादा बार मायावती को


 प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री सर नवाब मुहम्मद अहमद सईद खां ( नवाब छतारी ) थे। इनका कार्यकाल 3-04-1937 से 16-07-1937 तक था। तब से लेकर अब तक उत्तर प्रदेश में कुल 31 बार मुख्यमंत्री चुने जा चुके हैं। इसमें खास बात है कि मायावती चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री चुनी गई हैं।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री एवं उनके कार्यकाल
क्रम संख्या मुख्यमंत्री प्रीमियर कार्यकाल
1.सर नवाब मुहम्मद अहमद सईद खाँ ( नवाब छतारी )- 03-04-1937 से 16-07-1937 तक (प्रीमियर )
2.पंडित गोविंद वल्लभ पंत- 17-07-1937 से 02-11-1939 तक (प्रीमियर )
01-04-1946 से 25-01-1950 तक (प्रीमियर )
26-01-1950 से 20-05-1952 तक
20-05-1952 से 27-12-1954 तक

3.डा० सम्पूर्णानंद- 28-12-1954 से 09-04-1957 तक
10-04-1957 से 06-12-1960 तक
4.चंद्रभानु गुप्त- 07-12-1960 से 14-03-1962 तक
14-03-1962 से 01-10-1963 तक
5.सुचेता कृपलानी- 02-10-1963 से 13-03-1967 तक
6.चंद्रभानु गुप्त- 14-03-1967 से 02-04-1967 तक
7.चैधरी चरण सिंह 03-04-1967 से 25-02-1968 तक
8.चंद्रभानु गुप्त 26-02-1969 से 17-02-1970 तक
9.चैधरी चरण सिंह 18-02-1970 से 01-10-1970 तक
10.त्रिभुवन नारायण सिंह 18-10-1970 से 03-04-1971 तक
11.कमलापति त्रिपाठी- 04-04-1971 से 12-06-1973 तक
12.हेमवती नन्दन बहुगुणा- 08-11-1973 से 04-03-1974 तक
05-03-1974 से 29-11-1975 तक
13. नारायण दत्त तिवारी-21-01-1976 से 30-04-1977 तक
14.राम नरेश यादव 23-06-1977 से 27-02-1979 तक
15.बनारसी दास 28-02-1979 से 17-02-1980 तक
16.विश्वनाथ प्रताप सिंह 09-06-1980 से 18-07-1982 तक
17.श्रीपति मिश्र- 19-07-1982 से 02-08-1984 तक
18.नारायण दत्त तिवारी -03-08-1984 से 10-03-1985 तक
11-03-1985 से 24-09-1985 तक
19.वीर बहादुर सिंह 24-09-1985 से 24-06-1988 तक
20.नारायण दत्त तिवारी 25-06-1988 से 05-12-1989 तक
21.मुलायम सिंह यादव 05-12-1989 से 24-06-1991 तक
22.कल्याण सिंह 24-06-1991 से 06-12-1992 तक
23.मुलायम सिंह यादव 04-12-1993 से 03-06-1995 तक
24. मायावती 03-06-1995 से 18-10-1995 तक
21-03-1997 से 20-09-1997 तक
25.कल्याण सिंह 21-09-1997 से 12-11-1999 तक
26.राम प्रकाश 12-11-1999 से 28-10-2000 तक
27. राजनाथ सिंह 28-10-2000 से 08-03-2002 तक
28.मायावती 03-05-2002 से 29-08-2003 तक
29.मुलायम सिंह यादव 29-08-2003 से 13-05-2007 तक
30.मायावती 13-05-2007 से 15-03-2012 तक
31.अखिलेश यादव 15-03-2012 से अब तक

समाजवादी पार्टी अध्यक्ष नेता जी


सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री व केंद्र सरकार में एक बार रक्षा मंत्री रह चुके हैं। उनका जन्म 22 नवम्बर 1939 को इटावा जिले के सैफई गांव में मूर्ति देवी व सुधर सिंह के घर हुआ। राजनीति में आने से पहले मुलायम सिंह आगरा विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर (एम०ए०) एव जैन इन्टर कालेज करहल (मैनपुरी) से बीटी करने के बाद कुछ दिनों तक इन्टर कालेज में अध्यापन कार्य भी कर चुके हैं।

अपने राजनीतिक गुरु नत्थूसिंह को मैनपुरी में आयोजित एक कुश्ती प्रतियोगिता में प्रभावित करने के पश्चात मुलायम सिंह ने नत्थूसिंह के परम्परागत विधान सभा क्षेत्र जसवन्त नगर से ही अपना राजनीतिक सफर आरम्भ किया था। मुलायम सिंह 1967 में पहली बार विधान सभा के सदस्य चुने गए और मंत्री बने। 1992 में उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाई। वे तीन बार क्रमशः 5 दिसम्बर 1989 से 24 जनवरी 1991 तक, 5 दिसम्बर 1993 से 3 जून 1996 तक और 29 अगस्त 2003 से 11 मई 2007 तक उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री रहे। इसके अतिरिक्त वे केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री भी रह चुके हैं।
पांच भाइयों में तीसरे नंबर के मुलायम सिंह के दो विवाह हुए हैं। पहली शादी मालती देवी के साथ हुई। मालती देवी के साथ विवाह में रहते हुए ही मुलायम ने साधना गुप्ता से भी विवाह किया। अखिलेश यादव मालती देवी के बेटे हैं। जबकि प्रतीक यादव दूसरी पत्नी साधना के बेटे हैं।